तुम कब बन कर मिलोगी मुझे
रात जैसे सूरज थककर
रात की बांहों में समाता है
और रात उसकी आग को
बुझाती है उस पहर जब
चारो तरफ छाया रहता है
घुप्प अँधेरा और उसे
ओस से नहला चांद सा शीतल
बना कर करती है उसका श्रृंगार
अपने यौवन से और उसको
लगाती है टिका अपने स्पर्श का
फिर अपने काले ,घने ,लम्बे केशु
में ढक लेती है उसको कभी महसूस करो
उस प्रेम को जो पृथ्वी पर आदिकाल
से चला आ रहा है और चिरकाल तक चलेगा
सूरज और रात का अद्भुत मिलन मैं भी
प्रतीक्षारत हूँ सूरज बन अपनी रात की बांहों में
समां जाने को
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