Tuesday, 16 May 2017

प्रतीक्षारत हूँ सूरज बन





तुम कब बन कर मिलोगी मुझे 
रात जैसे सूरज थककर
रात की बांहों में समाता है 
और रात उसकी आग को
बुझाती है उस पहर जब 
चारो तरफ छाया रहता है 
घुप्प अँधेरा और उसे 
ओस से नहला चांद सा शीतल
बना कर करती है उसका श्रृंगार 
अपने यौवन से और उसको
लगाती है टिका अपने स्पर्श का 
फिर अपने काले ,घने ,लम्बे केशु 
में ढक लेती है उसको कभी महसूस करो
उस प्रेम को जो पृथ्वी पर आदिकाल 
से चला आ रहा है और चिरकाल तक चलेगा
सूरज और रात का अद्भुत मिलन मैं भी 
प्रतीक्षारत हूँ सूरज बन अपनी रात की बांहों में
समां जाने को 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !