अगर हो इश्क़
सच्चा तो इश्क़
सबसे आसां इबादत है
बिलकुल कलकल बहते
नीर जैसी ना किसी लफ्ज़
की जरुरत ना ही किसी
खास भाषा की मोहताज़
ना किसी खास वक़्त
की पाबन्दी ओर ना ही
कोई मज़बूरी और यही
इबादत अपने आप हर
वक़्त होती रहती है
बिलकुल कलकल बहते
नीर जैसी जंहा पहुंचना है
उसे पहुँचती भी रहती है
ये है सच्चा इश्क़ और एक है
तेरा इश्क़ खोजना उसमें
क्या-क्या नहीं है तेरे इश्क़ में
इबादत होती है क्या?
कंहा बहता है तेरा कलकल इश्क़
कब बिना कहे कुछ समझा है
तेरे इश्क़ ने बोलो और पाबंदिया
ही पाबंदिया है तेरे इश्क़ में
मज़बूरिया ही मज़बूरिया तेरा इश्क़ है ?
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