अक्सर ठंडी रातों में
नग्न अँधेरा
एक भिखारी सा
यूं ही इधर उधर फिरता है
तलाशता है एक गर्माहट
कभी बुझते दिए की रौशनी में
कभी कांपते पेडों के पत्तों में
कभी खोजता है एक सहारा
टूटे हुए खंडहरों में ,
या फ़िर टूटे दिलों में
कुछ सुगबुगा के
अपनी ज़िंदगी गुजार देता है
यह अँधेरा कितना बेबस सा
यूं थरथराते ठंड के साए में
बन के याचक सा वस्त्रों से हीन
राते काट लेता है !!
ठीक मेरी रातो की तरह
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