Monday, 12 June 2017

तुम्हारा कुछ भी सुराग


तुम नहीं जानती 
क्यूँ  करता रहा हूँ
मैं ऐसा और करता 
ही रहता हूँ हमेशा ,
जहाँ भी लगता है
तुम्हारा कुछ भी सुराग
पहुँच जाता हूँ मैं 
बिन सोचे -बिन रुके
मन और नयन
तुम्हें ही तलाशते हैं
मुझे मालूम है
तुम वहां नहीं हो
फिर भी पहुंच जाता हु 
उम्मीद में की कंही 
तुम मिल जाओ मुझे वंहा 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !