खिलते हुए तुम्हारे,
गुलाबी होठो से आते हुए
नाजुक कहकहे की साँसें
हिलाती है मुझे
सूर्य और हवा
झर आए मुझ तक
दूर की आवाज
अब कितना नजदीक लगती है
मेरे बगल में खड़ी
लेकिन मेरी हर छाया से बेखबर
वह कोमलतम
उत्तेजित और सघन
जल हवा रोशनी
बदलती है तुम्हारी तरह
जैसे बदलता मैं
हम हरेक की चेतना में
जगाएँगे ये शब्द-
कि झूठ और असत्य को
ललकारेंगे हम
सबके बीच में रह कर
यही स्वप्न तो देखता
आया हु मैं कब से
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