चुप-चाप सी
चल रही थी
मेरी जिन्दगी ,
एक ठहरी हुयी
नदी सी ..
ना सुबह के
होने की थी कोई
उमंग ही , ना ही
शाम होने की
ललक ही थी ,
दिन चल रहे थे
और रातें रुकी
हुई सी थी .. सहसा
ये क्या हुआ था ,
मेरे मन में ये कैसी
हिलोर उठी थी
शांत लहरों पर
रुकी हुई मेरी
ज़िन्दगी की
पतवार किसने
थाम ली ...!
क्या यह तुम्हारे आने
का इशारा था ....!
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