Wednesday, 21 June 2017

तुम्हारी हथेलियों की तपन


मैं अब अपनी 
चेतना को उतारकर
रद्द हो चुके कपड़ों की तरह 
फेंक देना चाहता हूँ
इन दिनों वही 
करना चाहता हूँ
जैसा तुम कहती जाओ
तुम्हारी हथेलियों की 
तपन को 
फैलाकर अपनी नस नस में
पकड़कर उँगली तुम्हारी 
चलते जाना चाहता हूँ
शहर के आखिरी 
छोर वाले घर तक
आज, अँधेरा घिर आने की 
परवाह किए बगैर
वो सब्द सुनने को 
बेक़रार मैं कर रहा हु 
आज भी इंतज़ार
तुम्हारा 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !