मैं अब अपनी
चेतना को उतारकर
रद्द हो चुके कपड़ों की तरह
फेंक देना चाहता हूँ
इन दिनों वही
करना चाहता हूँ
जैसा तुम कहती जाओ
तुम्हारी हथेलियों की
तपन को
फैलाकर अपनी नस नस में
पकड़कर उँगली तुम्हारी
चलते जाना चाहता हूँ
शहर के आखिरी
छोर वाले घर तक
आज, अँधेरा घिर आने की
परवाह किए बगैर
वो सब्द सुनने को
बेक़रार मैं कर रहा हु
आज भी इंतज़ार
तुम्हारा
No comments:
Post a Comment