जैसे खिड़की के तरफ वाली
सीट को अक्सर छूती है सूरज की किरण
वैसे ही जब जब मैं होता हु अकेला
तब तुम्हारी तुम्हारी अनुपस्थिति में भी
मैं महसूसता हु तुम्हारी ऊष्मा को
उसी सिद्दत से जैसे तुम साथ होती थी
तब महसूसता था और अक्सर अँधेरी
रातों को तुम्हारे भीतर का कुछ
अब भी छूता है मुझे हलके से और
बहुत मनुहार करता है तुम्हारी
मज़बूरिओं को समझने के लिए
पर मैंने प्रेम की जितनी किताबें
पढ़ी है उसमें कभी नहीं पढ़ा
प्रेम को मज़बूर होते हुए इसलिए
मैं नहीं समझ पाया अब तक
तुम्हारी मज़बूरिओं को शायद
प्रेम जिन्दा रहे इसके लिए
सिर्फ स्मृति ही काफी नहीं होती ...
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