Saturday 19 August 2017

तुम्हारी ऊष्मा को मैं महसूसता हु


जैसे खिड़की के तरफ वाली 
सीट को अक्सर छूती है सूरज की किरण
वैसे ही जब जब मैं होता हु अकेला
तब तुम्हारी तुम्हारी अनुपस्थिति में भी 
मैं महसूसता हु तुम्हारी ऊष्मा को 
उसी सिद्दत से जैसे तुम साथ होती थी
तब महसूसता था और अक्सर अँधेरी
रातों को तुम्हारे भीतर का कुछ 
अब भी छूता है मुझे हलके से और
बहुत मनुहार करता है तुम्हारी 
मज़बूरिओं को समझने के लिए
पर मैंने प्रेम की जितनी किताबें 
पढ़ी है उसमें कभी नहीं पढ़ा 
प्रेम को मज़बूर होते हुए इसलिए
मैं नहीं समझ पाया अब तक 
तुम्हारी मज़बूरिओं को शायद 
प्रेम जिन्दा रहे इसके लिए 
सिर्फ स्मृति ही काफी नहीं होती ...

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !