Saturday, 12 August 2017

असभ्य हो जाऊ

क्या मिला सभ्य होकर
प्रेमियों को 
कई बार ये सोचता हु
फिर से जंगली हो जांऊ
और महसूस करू एक बार
फिर से पीपल की छांव 
ये सभ्यता का चोला उतारकर
बरगद सी लम्बी जड़ फ़ैलाऊ
और लपेट लाऊ उसमे तुम्हे
और फुस की एक झोपडी 
बना उसके एक कोने में 
उगाऊं तुलसी का पौधा 
और रखु उसके किनारो पर 
एक दीपक जिसको आकर
तुम जलाओ सुबह शाम 
और तुम्हे साथ लेकर 
लौटू इन हरी हरी घांसो पर
और एक बार फिर से 
असभ्य हो जाऊ

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !