मेरी हीर !
प्रेम तुमसे है
मुझे कुछ कुछ
हीर-राँझा सा ही
अदृश्य अपरिभाषित
और अकल्पित है
जिसकी सीमायें
और इसका आकर्षण
भी कुछ ऐसा है
जो विकर्षण की हर
सीमा तक जाकर
भी तोड़ आता है
दूरियों की सभी
बेड़ियाँ और अंततः
समाहित कर देता है
मुझे तुझमे कुछ ऐसे
की सोचने लग जाता हूँ
कि अब तुम्हे मैं पुकारू
मेरी हीर कह कर !
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