Thursday, 3 October 2019

आत्म-मंथन !


आत्म-मंथन !

कही बाहर नहीं
बल्कि स्वयं के अंदर 
ही आत्म-मंथन 
चलता है,
तो कभी-कभी जैसे  
ज्वालामुखी सा 
फूटता है,
कभी-कभी दावाग्नि 
जलती है,
तो कभी-कभी बर्फ 
सी जमती है,
कभी-कभी मूसलाधार 
बरसात होती है,
तो कभी आँधी और 
तूफान आता है,
ये सब कुछ बाहर 
नहीं होता है,
बल्कि स्वयं के 
अंदर घटता है, 
बाहर तो सूरज 
अपनी किरण वैसे ही 
बिखेर रहा होता है 
जैसे वो रोज बिखेरता है !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !