Saturday, 3 March 2018

चित्‍ताकर्षक दिनकर सा मेरा प्रेम

रंगो के इस फागोत्सव की हार्दिक बधाई
प्रभातकाल के चित्‍ताकर्षक दिनकर 
की तरह है मेरा प्रेम  
जो आकांक्षा के अभीष्ट का रक्तवर्ण 
लिये निकलता है प्रतिदिन 
तुम्हारे अस्तित्व के आसमान पर 
अपनी धरा को हरा करने की 
अभिलाषा लिए हरित और गाढ़ा है 
मेरे उमंगो का फागुन 
तभी तो बहुत विचार कर नहीं 
लगने दिया कोई और रंग तुमपर 
इस दुनिया का क्योकि कि जो रंग 
उतर जाए धोने से वह रंग भी भला 
कोई रंग होता है?
मैं तो रंगूँगा तुम्हें अपने प्रेम के 
सुर्ख रक्तवर्ण से जो कभी छूटेगा नहीं 
आओगी तुम मेरे घर इसी सुर्ख रक्तवर्ण 
के रंग में लिपट कर और जायेंगे भी दोनों 
साथ इसी सुर्ख रक्तवर्ण के जोड़े में 
ये रंग जो जन्मों तक अक्षुण्ण रहेगा 
रंगो के अनगिनत समन्दर समाए होंगे  
मेरी उस छुअन में जो तुम अपने कपोलों 
पर हर दिन महसूस करोगी  तब सैंकड़ो 
इंद्रधनुष सिमट आऐंगे तुम्हारी 
कमनीय काया पर और 
मैं बजाऊँगा उस दिन चंग 
तुम गाना अपने  प्रेम का अमर फाग 
लोग पूछे तो गर्व से कहना उस दिन 
तुम प्रेम का रंग आज डाला है मेरे 
"राम" ने मुझ पर 

No comments:

प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !