Friday 30 March 2018

मंदिर में बजती घंटिया



मंदिर में बजती घंटिया
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तुम गूंजने लगती हो 
इस देह व आत्मा रूपी 
मेरे समेत अस्तित्व के 
ब्रह्माण्ड में मंदिर में 
बजती घंटियों की तरह 
और धरती की तरह 
काटने लगती हो चक्कर
मेरे " मैं " के चारो ओर
मैं से हम बनाने की 
उत्तकंठ अभिलाषा लिए 
तुम उस पल में एक 
योगाभ्यासिनी के स्वरुप 
होती हो और मैं होता हु
तुम्हारा वैदिक मंत्र 
जिसे उच्चारित कर तुम
पा लेती हो मेरा समूल 
और एहसास भर देती हो 
मेरे अंदर सम्पूर्णताः का 
फिर सुबह स्वर गुंजारित
प्रतीक्षारत हो उठता हु 
उसी मौन का जो मुझमे
जगाती है आकंठ प्यास ..

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !