Monday, 26 March 2018

रूह की कराह

रूह की कराह
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तुम बात करती हो मेरे  
दरवाज़ों मेरी खिड़कियों 
के खड़खड़ाने की जो 
दिख जाती है तुम्हे 
पर ये तो बताओ तुम
इस रूह की कराह तुम्हे 
सुनाई नहीं देती या 
इंतज़ार कर रही हो 
मेरा की कब अपने 
ही वक्ष को मैं अपने 
ही हाथों चीरकर 
नहीं दिखला देता तुम्हे  
तुम बात करती हो मेरे 
दरवाज़ों मेरी खिड़कियों 
के खड़खड़ाने की जो 
सुन जाती है तुम्हे 
पर ये तो बताओ तुम
इस हृदय की पीड़ा 
दिखाई नहीं देती तुम्हे 
या इंतज़ार कर रही हो
उन धड़कनो का जो 
धड़क धड़क कर 
एहसास दिलाती है 
मेरे जीवित होने का 
उनके रुक जाने का 
तुम बात करती हो मेरे  
दरवाज़ों मेरी खिड़कियों 
के खड़खड़ाने की जो 
दिख जाती है तुम्हे 
पर ये तो बताओ तुम
क्या तुम्हे नहीं दिखते 
वो अधूरे स्वप्न जो 
दिन ब दिन बूढ़े हो रहे है 
क्या इन्हे तब चलने 
कहोगी साथ अपने जब 
इनके घुटनो को बदलवाने का 
वक़्त आ जायेगा !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !