Sunday 25 March 2018

ज़िन्दगी को लौटना होगा

























ज़िन्दगी को लौटना होगा  

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ज़िन्दगी कुछ देती नहीं कुछ लिए बिना  
ये महसूस किया है उस पहले ही दिन 
जब था मैं सबसे महफूज़ माँ की कोख में 
जंहा अपनी सारी फरमाईशें पूरी करवा लेता था 
लात मार मार कर अपनी में के पेट पर  
ज़िन्दगी ने तय की है समय-सीमा उस महफ़ूज़ियत
की भी चाहे हो गरीब-या अमीर नहीं रह सकता 
महफूज़ नौ महीने से ज्यादा वंहा तब 
छीन कर उस महफ़ूज़ियत को देती है 
देती है वो बचपन जंहा सभी घरवालों को 
घुटनो पर चलवाकर सीख लेता है उनकी 
ही तरह अपने पैरों पर चलना फिर एक बार 
छीनकर वो बचपन देती है किशोरावस्था 
जो बीत जाता है खेल-कूद और सिखने सिखाने में 
ये किशोरावस्था छीनकर देती है चीर प्रतीक्षित यौवन
वो यौवन जो घोड़े पर सवार होकर पा तो लेता है 
देह पर कुछ अधूरेपन का एहसास रह जाता है 
और सबसे लम्बा और तन्हा सफर तय 
करना होता है रूह को पाने के लिए वो भी 
सभी को मिले ये जरुरी नहीं उसकी नज़र में 
हा इतना तो समझ आ गया है मेरे की रूह की
दहलीज़ को कोई जवान "जामीन" पार नहीं 
कर सकता शायद रूह को पसंद है बृद्धावस्था 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !