हर बार जब
होता हु नाराज़ मैं
तुम झुकती हो
फिर संभालती हो
अपना आँचल,
देखती मेरी ओर,
भर आँखो मे
अनन्य भाव,
तब मैं सोचता ,
अब शायद
तुम उठाओगी
प्रेम पुष्प और
लगा लोगी
अपने सीने से,
तुम दोगी हवा
अपने आँचल की,
मन मे जलती
प्रेम चिन्गारी को
बना दोगी ज्वाला,
और फिर
कर दोगी शांत भर
आलिंगन मे मुझे ,
पर हर बार ही
कुचल कर मेरे
अरमानो को चल
देती हो अपने घर की ओर
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