शायद तुम्हे प्रेम है ;
उन फूलों से जिनकी
सांसों से तुम्हे मेरी
महक मिलती है !
शायद तुम्हे प्रेम है ;
उस एक आईने से
जिसकी आँखों में
तुम्हे मैं नज़र आता हूँ !
शायद तुम्हे प्रेम है ;
उस सियाह रात से
जिसकी ख़ामोशी में
तुम मेरी आवाज़ अपनी
देह पर लिखती हो !
शायद तुम्हे प्रेम है ;
उस एक खुदा से
जिसकी इनायत से
तुमने मुझे पाया है !
शायद नहीं अब तो
यकीन हो गया है मुझे
तुम्हे बेइंतेहा प्रेम
हो गया है मुझ से !
तब ही तो मेरी एक
आहट भंग कर देती है
तुम्हारी सम्पूर्ण साधना !
मैं इसी यक़ीं पर
रोज मांजता हूँ
अपनी ये काया !
और रोज अपनी एक
नई छवि बनाता हूँ
हर वो रूप धरता हूँ
जो तुम्हे भाता है !
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