ख़्वाहिशों के प्रतिबिम्ब !
काग़ज़ की सतह पर बैठ
कर लफ़्ज़ों ने ज़ज़्बातों से
तड़पने की दरख़्वास्त की है !
विचलित मन ने बेबस
होकर प्रतीक्षा की बिखरी
किरचों को समेट कर बीते
लम्हों से कुछ गुफ़्तगू की है !
यादों के गलियारों से निकल
कर ख़्वाहिशों के अधूरे
प्रतिबिंबों ने रूसवा हो कर
उपहास की बरसात की है !
फिर नहाई शाम सौंदर्य को
दरकिनार कर उड़ते धूल
के चंचल ग़ुबार ने दायरों
को लांघ दिन में रात की !
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