प्रेम का सागर !
मैं जमा हुआ था ,
पर्वत हिमालय सा
मेरे सीने में बर्फ ही
बर्फ जमी हुई थी !
ना कोई सरगोशी थी ,
ना कोई हलचल थी ,
सब कुछ शांत स्थिर
और अविचल था !
फिर तुम आयी और
स्पर्श कर मेरे मन को
उसमे अपने प्रेम की
ऊष्मा व्याप्त कर गयी थी !
बूंद बन पिघल पड़ा था ,
बादल बन बरस पड़ा था ,
फिर ना जाने कब मैं ,
तुम्हारे ही प्रेम का सागर
बन गया था !
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