अथाह की थाह !
नदियों को मिलना होता है ,
अपने उस अथाह सागर से ;
समा कर उस में बन जाती है ,
वो नदी भी फिर अथाह सागर ;
फिर उसका प्रवाह भी होता है ,
उसी दिशा में जिस दिशा में ;
उसका वो विस्तार बहता है ,
तब ही तो वो उसके समीप ;
आकर भी खुद को बाँट लेती है ,
स्वयं को कितनी ही धाराओं में ;
थाह अथाह की लेना चाहती है ,
शायद पहले सम्पूर्ण विलय के !
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