कुछ भी हाँ कुछ भी कहाँ होता है वहाँ ,
जब तुम मेरे साथ नहीं होती हो वहाँ ;
सिर्फ सन्नाटें की दीवारें होती है वहाँ ,
और बेक़रारियों की छत होती है वहाँ ;
बेताबियों की बेतरतीब जमीं होती है वहाँ ,
हाँ हरी परत तो बिल्कुल नहीं होती है वहाँ ;
आसमान का नीला आंचल नहीं होता है वहाँ ,
हवाओं के बीच कंही झूल रहा होता हूँ मैं वहाँ ;
तुम और तुम्हारी बेसुध यादें होती है वहाँ ,
तेज़-तेज़ दौड़ती हुई धड़कने होती है वहाँ ;
मेरे काबू से बहार मेरी ही सांसें होती है वहाँ ,
और मैं एकदम तन्हा अकेला होता हूँ वहाँ ;
तन्हाई की जुबान पर मेरा नाम होता है वहाँ ,
तब भी मेरी जुबान पर तेरा नाम होता है वहाँ ;
खुद-ब-खुद से अजब सी तकरार होती है वहाँ ,
और टूटता बिखरता हुआ सा होता हूँ मैं वहाँ ;
तारो की टिमटिमाहट भी जलती बुझती है वहाँ ,
हाँ मेरी तमाम उलझने भी हैरान होती है वहाँ ;
मेरी सारी संवेदनाएं बिलकुल बेबस होती है वहाँ ,
फिर भी एक तुम्हे अपने सबसे करीब पता हूँ वहाँ ;
तुम्हें अपने पास बुलाने की उम्मीद में प्रखर होता है वहाँ ;
तब ही तो तुम्हे तुम्हारे इंतज़ार में बैठा मिलता हूँ मैं वहां !
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