Wednesday, 11 December 2019

मेरी चाहत !


मेरी चाहत !

मेरी चाहत 
तुम्हे ऐसे चाहने की     
जैसे चन्द्रमा चाहता है 
बेअंत समंदर को ;

जैसे सूरज की किरण
सीप के दिल को चाहे ;
जैसे खुशबु को हवा रंग 
से हटकर चाहती है ;

जैसे कोई शिल्पकार 
अपने विश्वास को एक 
पत्थर में भी देख लेता है ;
   
और उस पत्थर को 
तराश कर वो अपने 
ईश को पा भी लेता है ;

जिस बेइन्तेहाई से 
ऑंखें अपने ख्वाबों 
को चाहती है ;

जैसे छालों से भरे पांव 
बारिश की दुआ मांगते 
रहते है ;

मेरी चाहत 
भी ठीक वैसे ही चाहती है  
एक तुम्हे चाहने को !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !