मेरी चाहत !
मेरी चाहत
तुम्हे ऐसे चाहने की
जैसे चन्द्रमा चाहता है
बेअंत समंदर को ;
जैसे सूरज की किरण
सीप के दिल को चाहे ;
जैसे खुशबु को हवा रंग
से हटकर चाहती है ;
जैसे कोई शिल्पकार
अपने विश्वास को एक
पत्थर में भी देख लेता है ;
और उस पत्थर को
तराश कर वो अपने
ईश को पा भी लेता है ;
जिस बेइन्तेहाई से
ऑंखें अपने ख्वाबों
को चाहती है ;
जैसे छालों से भरे पांव
बारिश की दुआ मांगते
रहते है ;
मेरी चाहत
भी ठीक वैसे ही चाहती है
एक तुम्हे चाहने को !
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