मन का उपवन
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ओ रज्ज
तुम ना होतीं तो
कहां से होता ये प्रखर रे
ओ रज्ज
तू ही भोग रे
प्रखर की चित्त
चोर सी चितवन
उसके मन का उपवन
उसकी आँखों की कोरों में सजकर अपनी चमक
उसमे चमकाते रखना
अपनी ख़ुशबू से उसे
बस महकाती रहना
अपने यौवन से उसे
रिझाती रहना और
रखना सदा तेरी
हरी-हरी कोख रे
ओ रज्ज
तुम्हारे ही कारण
जीवन में प्रकट
हुआ है प्रेम रे
तुम्हारे ही कारण
सम्भव हुई ये
रसना युक्त रचना रे
ओ रज्ज
तुम ना होतीं तो
कहां से होता ये प्रखर रे !
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