फर्क यथार्थ और खयालो का
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शायद तुमने मुझे अपने
सपनो में इतना देख लिया
की मैंने अपनी वास्तविकता
ही खो दी तुम्हारी नज़रों में
शायद इसलिए की तुम्हारे
सपनो वाला "राम" तुम्हारी
सारी नादानियों और मज़बूरिओं
को मुझसे कंही ज्यादा समझता है
और कभी कोई शिकायत भी नहीं करता
ना ही वो कभी नाराज़ होकर जा बैठता है
तुमसे कहीं दूर और मैं तो अक्सर रहता हु
नाराज़ तुम्हारी दोहराती हुई नादानियों की वजह से
और लड़ता ही रहता हु देख कर मज़बूर तुम्हे अपनी
जिम्मेदारिओं के आगे पर लेकिन शायद तुम्हे अभी
आभाष नहीं उस फर्क का जो होता है यथार्थ और खयालो में
और शायद तब तक हो भी ना जबतक मैं आना ना छोड़ दू
तुम्हारे सपनो में और उन सपनो में भी समझने से इंकार ना कर दू
तुम्हारी सारी नादानियों और मज़बूरिओं को क्यों सही कहा ना मैंने !
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