साज़िश-ए-मोहब्बत
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मैं जो एक जलता चिराग था
मेरे करीब आने के पहले उसने
बड़े करीब से जाना था मुझे
कितनी पुरवैया कितनी पछुआ
और कितनी मंद बयारें आयी और
थक-हार कर लौट गयी साथ लेकर
अपने यौवन का गुरुर पर जिस जिस
का टुटा था गुरुर वो कंहा चुप बैठने
वाली थी उन्होंने फिर रची साज़िश-ए-मोहब्बत
मनाया सबने मिलकर तुफानो और उफानो
को वो भी आये बड़ी तैयारी से और उन्हें भी
लौटना पड़ा खाली हाथ पर मैं जो एक जलता
चिराग था वो वैसे ही जलता रहा अब बारी थी
उसकी जिसने मेरे करीब आने के पहले मुझे
पहचाना था बड़े करीब से वो आयी छायी और
बन उन सभी पुरवैया,पछुआ व तुफानो की बून्द
बैठ गयी जलते चिराग की लौ पर और मैं चाहकर
भी बुझने के अलावा कुछ ना कर सका !
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