भिक्षुक सा अँधेरा
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नहीं कटती रातें मुझसे
तुम्हारे बिन जबकि
देखता हु अक्सर ठंडी
रातों में नग्न अँधेरा
एक भिक्षुक की भांति
इधर-उधर तलाशता है
गर्माहट कभी बुझते हुए
दीपक की रोशनी में तो
कभी काँपते हुए पेड़ों के
पत्तों में तो कभी खोजता है
सर छुपाने का आश्रय
टूटे और वीरान खंडहरों में
और कभी कभी दिलो में
उठती सुगबुगाहट के साथ
गुजार देता है अपनी
पूरी की पूरी ज़िन्दगी
भी यु बेबस सा थरथराते
ठण्ड के साये में बनकर
याचक वो भी वस्त्रो से हीन
लेकिन अपनी रातें तो फिर
भी वो काट ही लेता है
फिर क्यों नहीं कटती
मुझसे ये रातें तुम्हारे बिन ?
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