Wednesday, 27 November 2019

खारी-खारी बूँदें !


खारी-खारी बूँदें ! 

तुम्हारे छूने भर से नदी बन 
तुम्हारे ही रगों में बहने को 
आतुर हो उठती हूँ ;

बदले में कुछ खारी-खारी बूंदें  
मेरी शुष्क हथेलियों पर तुम  
रख देते हो ; 

वो बूंदें मेरी इन हथेलिओं पर
चमकती हैं तब तक जब तक 
तुम मेरे साथ होते हो ;

तुम्हारे दूर जाते ही खारी-खारी  
बूंदें भी जैसे लुप्त हो जाती है 
ठीक उस तरह ;

जैसे सूरज के अवसान पर 
चारों ओर छायी मृगमरीचिका 
लुप्त हो जाती है ;

तब मेरी आकंठ प्यास को 
तुम्हारी वो कुछ खारी-खारी 
बूंदें भी अमूल्य लगने लगती है !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !