तृप्ति !
तुम्हारी तृप्ति मेरी ,
अभिव्यक्ति में छुपी है ;
मेरी तृप्ति एक तुम्हारे ,
ही सानिध्य में छुपी है ;
तुम्हे तुम्हारी तृप्ति सुबह ,
आंख खोलते ही मिल जाती है ;
मेरी तृप्ति रातों में करवट ,
बदल-बदल कर जगती है ;
तुम्हे तुम्हारी तृप्ति मेरी ,
महसूसियत से मिलती है ;
मेरी तृप्ति तुम्हारे पीछे-पीछे ,
दौड़ती भागती बैरंग लौट आती है ;
तुम्हारी तृप्ति तुम्हारे चारों ओर ,
फैले शोर के निचे दब जाती है ;
मेरी तृप्ति तुम्हारी दहलीज़ पर ,
तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाती है ;
लेकिन मैंने तो कहीं पढ़ा है ,
तृप्ति तो केवल तृप्ति होती है ;
फिर क्यों तुम्हारी तृप्ति और मेरी
तृप्ति अलग अलग जान पड़ती है !
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