क्यों रात की ये कालिमा है ,
क्यों किरणों से तपता दिन है ;
क्यों आँखों से आसमां ओझल है ,
क्यों हवाएँ सूखी और मद्धम है ;
क्यों ये लम्हें दर-दर बिखरे है ,
क्यों यादों के प्रतिबिंब धुँधले है ;
क्यों आहें कराहें हो रही है ,
क्यों दिन बीत ही नहीं रहे है ;
क्यों एक नई सुबह की ख़्वाहिश है ,
क्यों अब चुप रहना भी मुश्किल है ;
क्यों अब अकेले चलते रहना भारी है ,
क्यों भटके-भटके से ये पदचिन्ह है ;
क्यों अब सारी तस्वीरें चुभती सी है ,
क्यों सिमट रहा जीवन प्रतिदिन है ;
क्यों एक सिर्फ तेरे साथ ना होने से
कितने कुछ पर क्यों लग रहा है !
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