तुम्हारा आलिंगन !
मैं जब जब होती हूँ
तुम्हारे आलिंगन में
तो ये पुरवाई हवा भी
कहाँ सिर्फ हवा रहती है
वो तो जैसे मेरी साँस
सी बन मेरे रगो में
बहने लगती है ;
हर एक गुल में जैसे
एक सिर्फ तुम्हारा ही
तो चेहरा दिखाई देने
लगता है ;
मन उड़ता है कुछ यूँ
ख़ुश होकर कि जैसे
इच्छाओं के भी पर
लग गए है ;
और रूह तो मानो
स्वक्छंद तितली का
रूप धर उड़ने लगती है ;
मैं जब जब होती हूँ
तम्हारे आलिंगन में
तो कितना कुछ स्वतः
ही घटित होने लगता है !
No comments:
Post a Comment