दर-ब-दर ठोकर खाती
फिर रही हूँ मैं ;
तभी तो दर-ब-दर खुद को
खोजती फिर रही हूँ मैं ;
कौन यूँ खुद में जज्ब कर
ले गया है मुझे ;
कोई जा कर बताये उसे
खुद उसमे खोना चाहती हूँ मैं ;
इश्क़ के इस रस्ते की ऊँच नीच से
अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ मैं ;
फिर भी ठोकर क़दम क़दम पर
अब खा रही हूँ मैं ;
ठोकर अगर किसी पत्थर से
से ही खाई हूँ मैं ;
तो मेरा जख्मी होना भी
लाज़मी समझती हूँ मैं !
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