वजह... बस यूँ ही !
वो रतजगे करता है,
जब मैं पूछती हूँ उससे,
बंजर हुई नींदों की वजह,
तो कहता है... बस यूँ ही !
तो कभी जवाब के बदले,
बस एक के बाद एक कविता
सुनाता है वो, और कभी छंद
लिखता है, फिर पूछती हूँ हवाओं
पर सज़दे की वजहें, तो कहता है...बस यूँ ही !
और अपलक मेरा दीदार
करने लग जाता है, लेकिन
जब पूछती हूँ, बे-जुबान ख़ामोशी
का सबब, तो कहता है...बस यूँ ही !
कोई वजह ना पाकर,
जब मैं चुपचाप जाने को
खड़ी होती हूँ तब, एक अदृश्य
आवाज़ मेरे कानों में सुनाई पड़ती है...हाँ बस यूँ ही !
इन सब की वजहें गर,
जमाना पूछें तो वो बताये भी,
पर जो खुद वजह हो कर वजह पूछे,
तो वो क्या बोले, इसके अलावा की ...बस यूँ ही !
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