Wednesday, 24 April 2019

प्रतिबिम्ब धुंधले से हैं !

प्रतिबिम्ब धुंधले से हैं !


क्यों रात की ये कालिमा स्याह सी है,
क्यों रौशनी से तपता दिन व्याकुल सा है;

क्यों आसमा अब यूँ ओझल सा है,
क्यों हवा सूखी और मद्धम मद्धम सी है; 

क्यों ये लम्हे बिखरे-बिखरे से हैं,
क्यों यादों के प्रतिबिम्ब धुंधले से हैं; 

क्यों आँहे कुछ हल्की-हल्की सी हैं, 
क्यों आते नहीं वो दिन जो उजले-उजले से है; 

क्यों सुबह की ख्वाहिशें व्याकुल सी है,
क्यों लेटे रहना अकेले अब मुश्किल सा है; 

क्यों अकेले चलते रहना अब भारी सा है,
क्यों भटके भटके से अब ये पदचिन्ह भी है; 

क्यों हर एक पल अब बोझिल से है,
क्यों परछाइयाँ भी अब निश्छल सी है; 

क्यों औरों की तस्वीरें आँखों को चुभती सी हैं;
क्यों सिमटे जीवन प्रतिदिन तेरे बिना ही है !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !