Monday 8 October 2018

हमारी मति से ऊंचा

हमारी मति से ऊंचा
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हां इन्ही धधकते 
अंगारों के बीच ही 
मिलता है आश्रय 
प्रेम को जैसे इसका 
अर्थ भटकता रहता है
जीवन के निर्जन वनो 
में जैसे अकेला ठीक 
वैसे ही प्रेम आता है 
और ठहर भी जाता है 
अद्भुद सा हमारे मन 
की कल्पनाओं से भी 
लम्बा और हमारी मति  
से ऊंचा भी जो अंततः 
ढूंढ ही लेता है अपना 
आश्रय भी हां इन्ही 
धधकते सुलगते से  
अंगारों के बीच ही !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !