तुम्हारी हथेली पर चाँद
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मैंने तो उस पहले ही दिन
रख दिया था करवा चौथ
का चाँद हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन तुमने मेरे प्रेम
को स्वीकारा था;
मैंने तो उस दिन भी रख
दिया करवा चौथ का चाँद
सूरज से चमकते तुम्हारे
गालों पर जिस पहले दिन
मैंने महसूस किया था उन
गालों की उष्णता को;
मैंने तो उस दिन भी रख
दिया करवा चौथ का चाँद
जिस दिन देखा था सुर्ख
अग्निवर्ण होंठो को पपड़ाये
हुए प्रेम की प्यास में;
मैंने उस दिन तो मानो मैंने
इस ब्रह्माण्ड के लगभग सारे
चाँद ही लाकर रख दिए थे
तुम्हारी हथेली पर जिस दिन
तुमने सहर्ष ओढ़ ली थी मेरे
नाम की वो लाल रंग की चूनड़;
पर फिर भी ना जाने तुम अब
भी क्यों देखती हो मेरे प्रेम के
आंगन में खड़ी होकर चलनी
की ओट से उस पहुंच से दूर
चाँद में मुझे;
जबकि तुम्हारा चाँद तो तब से
कैद है तुम्हारी अपनी ही मुट्ठी में
जबसे तुमने उसे चाँद कहकर
पुकारा था;
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