कितना सहज सोच लिया था मैंने
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तुम अक्सर ही यूँ जो दो-चार
कदम मुझसे आगे चलती थी
जब भी मैं होता था तुम्हारे साथ
एक दिन यु बिन बताए अचानक
ही मैं अपने दो-चार कदम तेज़
चलकर ज्यों ही तुम्हारा हाथ
थाम लूंगा तो कितना सहज हो
जायेगा सबकुछ हां सबकुछ ही
जैसे हमारी चीज़ें हमारे लोग
और मेरे वो अलफ़ाज़ भी जो
अक्सर तुम्हे मेरी जिव्हा पर
कठोर तीखे और बेरुखे लगते थे
लेकिन मुझे नहीं पता था वो
मेरा यु तुम्हारा हाथ पकड़ना
तुम्हे इतना अखर जायेगा की
फिर कभी तुम वैसे ही दो-चार
कदम आगे चलने के लिए भी
मेरे साथ तैयार ना होगी और
देखो मैं इसे ऐसे कैसे इतना
सहज सोच लिया था है ना !
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