रूह चल पड़ी है विरक्ति की राह पर
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अमृत बरसाते चाँद को देख
मेरी रूह भी पुकारने लगती है तुम्हे
सुनो प्रिय कंहा हो तुम की
अब तो आओ तुम पास मेरे
और देखो कैसे ये सोलह कलाओं
का कलानिधि चाँद बरसा रहा है
अमृत अपने अप्रीतम प्रेम का
अपनी प्राण प्रिये धरा पर यु
सुनो प्रिय कंहा हो तुम बोलो
सुन रही हो ना तुम मेरी ये पुकार
मेरी रूह की आवाज़ को जैसे ही
मैं अधीरता को छूते देखता हु
उसी पल मैं भी देने लग जाता हु
उसका साथ यु तुम्हे पुकारने में
पर तुमने तो खड़ी कर रखी है
हमारे बीच दूरियों की ऊँची-ऊँची
दीवार तभी तो हमारी दी हुई ऊँची-ऊँची
आवाज़ें भी उन ऊँची-ऊँची दीवारों से
टकराकर बैरंग लौट आती है हम तक
और फिर मुझे निरुत्तर देख मेरी रूह
चल पड़ती है विरक्ति की राह पर अकेली
अब तुम ही बताओ कैसे रोकू उसे उस राह
पर जाने से अकेले की मैं अभी जीना चाहता हु !
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