मेरी आकंठ प्यास !
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तुम्हारे छूने भर से
नदी बन तुम्हारे ही
रग-रग में बहने को
आतुर हो उठती हु;
तुम बदले में रख देते हो
कुछ खारी-खारी बूंदें मेरी
शुष्क-शुष्क हथेलियों पर;
वो चमकती हैं तब तक
मेरी इन हथेलिओं पर
जब तक तुम साथ होते हो;
और तुम्हारे दूर जाते ही
लुप्त हो जाती है ठीक उस
तरह जैसे सूरज के अवसान
पर मृगमरीचिका लुप्त हो जाती है,
और तब मेरी आकंठ प्यास को
तुम्हारी वो कुछ खारी-खारी बूंदें
भी अमूल्य लगने लगती है !
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