वो भ्रमित करता भ्रम !
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मेरे आँसुओं की
बारिश से भीगी
मेरी ही रातों में;
मेरी ही खिड़की
के झरोखों से आती
हुई रोशनी में;
हलके अँधेरे और
हलके उजाले की
छुटपुट आहटों के
बीच-बीच में;
हमेशा ऐसा लगता
है जैसे तुम आयी हो
अभी-अभी कंही मेरे
ही घर में;
फिर सिलसिला शुरू
होता है तुम्हे खोजने
का पुकारने का की
आखिर तुम हो यही
कंही मेरे घर में;
और ये सिलसिला
अलसुबह तक यु ही
चलता है रहता और
कंही नहीं बल्कि मेरे
ही घर में;
फिर कंही दिन ढले
जाकर होता है एहसास
मैं था ऐसे ही किसी एक
दिग्भर्मित भ्रम में;
तुम तो आयी ही नहीं
भीगी पलकों और रुंधे
गले के साथ लौट आता
हु तब मैं;
अपने ही बिस्तर पर
कुछ इस तरह ही अक्सर
गुजरती है मेरी रातें यु
तेरे भ्रम में !
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