Friday, 7 September 2018

हठी और निर्भीक

हठी और निर्भीक
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उसने जिस प्रेम 
की कल्पना की 
थी ख्वाबों में उस
प्रेम की पूर्णताः को 
भी उसने एक अंगूठी 
और सात अग्नि के फेरों 
तक ही सीमित कर दिया 
अपनी उसी कल्पना में
पर मेरा प्रेम था उसकी 
कल्पना से कंही ज्यादा 
निर्भीक और हठी जिसमे 
ना तो किसी का डर था 
ना ही वो सुनता था अपने
प्रेम के लिए दूसरों के द्वारा 
कहे गए कोई शब्द वो तो 
बिलकुल आवरण सा था या 
यु कह लो आवरण ही तो था
उसका जो छाया रहता था उसके  
चारोँ ओर वक़्त और बे वक़्त भी
पर उसने तो समझा था बस उसे 
एक अंगूठी और अग्नि के साथ
लिए सात फेरे बस नहीं समझ पायी
वो निर्भीक है मेरा प्रेम  जो बहा ले जायेगा 
मुझे मेरे अवसान की ओर !    

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !