चित्ताकर्षक दिनकर सा प्रेम
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प्रभात काल के चित्ताकर्षक
दिनकर सा है ये मेरा प्रेम
जो मेरी आकांक्षा के अभीष्ट
का रक्तवर्ण लिए निकलता है
प्रतिदिन तुम्हारे अस्तित्व के
आसमान से अपनी धरा को
हरहरी करने की अभिलाषा लिए
जिसके उमंगो का फाल्गुन गाढ़ा
हरित है तभी तो कोई और रंग
चढ़ा ही नहीं तुमपर उस रंग में
रंगने के बाद क्योकि वो रंग ही
क्या रंग है जिसके रहते चढ़ जाए
कोई और दूजा रंग या वो कोई रंग
है भला जो धोने से फीका पड़ जाए
अब मैं रंगूंगा तुम्हे अपने सुर्ख
रक्तवर्ण से जो कभी छूटेगा नहीं
आओगी तुम मेरे घर इसी सुर्ख
रक्तवर्ण रंग के जोड़े को लपेटकर
और जायेंगे भी दोनों एक साथ इसी
रक्तवर्ण के एक जोड़े में लिपटकर
ये रंग जो जन्मो जन्मो तक रहेग़ा
अक्षुण्ण और रंगो के अनगिनत
समंदर समाये होंगे मेरी उस छुवन में
जो तुम अपने कपोलों पर हर दिन फिर
हर दिन महसूस करोगी तब सैकड़ों
इंद्रधनुष सिमट आएंगे तुम्हारी कमनीय
काया पर और मैं बजाऊंगा उस दिन चंग
और तुम गाना अपने प्रेम का अमर फाग
फिर भी गर ये दुनिया पूछ ले तुमसे तो
तो नज़र निचे झुकाने की जगह अपना
सर उठा कर कहना ये रक्तवर्ण रंग डाला
है मेरे पिया ने मुझ पर !
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