भूख
अपनी पीपाषा के वशीभूत होकर
मैं हर दिन ही तुम्हारे बारे में कुछ
ना कुछ तो अवश्य लिखता हूँ
लेकिन जब भी तुम्हारा ख्याल
मेरे दिलो-दिमाग से होकर गुज़रता है
मानो मेरे अन्दर भावों की स्याही की
बंद पड़ी बोतल खुद ब खुद छलक पड़ती है
जिसे अपनी कलम में जैसे ही भरने
बैठता हु मैं वो शब्द उचक-उचक कर
कागज़ पर स्वतः उतरने लगते है
वैसे तो मैं हर किसी चीज से जुडी
बातें लिखता हूँ तुम्हे लेकिन अपने
लिखे को उतनी शिद्दत से महसूस
तब तक नहीं कर पाता जब मेरी देह
के एक एक रोम छिद्र उत्तेजित हो
खड़े हो गवाही नहीं दे देती उस शिद्दत का
गोया मेरी कलम की भूख भी अब तुम्हारे
लिए लिखे शब्दों से ही मिटती है या यु कहु
की उस भूख को तृप्ति भी तुम्ही से मिलती है !
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