प्रथम देह तत्व भेद क्यों
बोलो आज भी अभेद है
देह भाषित तृप्ति
जिसमे तरलाई है
जिसमे घणद्रव्य है
जिसमे सम्मलित
उद्वेलित आकांक्षा है
प्रथम देह तत्व भेद क्यों
बोलो आज भी अभेद है
देह भेद को खोलने मात्र
ही जो हर माह प्रकटती है
वो रक्त की एक अविरल
चिर परिचित पूजित धारा है
जो स्वयं करती संचित है
घनद्रव्य को अपनी कोख में
करने सृजन उसी बीज
के मेल से सृजन जिसका
प्रथम देह तत्व भेद क्यों
बोलो आज भी अभेद है
जो आज भी कटु सत्य है
की कारक को तो वो वैसे
भी सदा से ही प्रिय है
फिर बोलो कर्ता क्यों आज
भी इससे कतराता है
जबकि बाकी सब कहा
गुणगान इस कौमार्य
व यौवन का जैसे आज
भी होता असत्य प्रतीत है
दूजा देह तत्व भेद होकर
भी आज अभेद क्यों नहीं है
वो जो तुम्हारा रक्ताभिक
श्यामल श्रृंगार युक्त है
जो सख्त होकर भी उदार है
जो सदैव प्रवेशातुर रहता है
बनकर नरम खग स्वरुप है
फिर क्यों प्रथम देह तत्व
भेद बोलो आज भी अभेद है !
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