राह पर खड़ा हु खाली हाथ
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देखते हुए इस रात को
पूरी रात खोजता रहा वो
जाने किसे बड़ी शिद्दत से
गुजरते हुए निराशाओं
के गलियारों से तब तक
जब तक की रात अपने
दिन से मिलकर तू गले
अभिभूत नहीं हो जाती
और जब छाने लगता है
उजाला और हवाएं धीमी
धीमी हो बंद नहीं हो जाती
तब वो होकर उदास फिर से
खड़ा हो जाता है अपनी राह
पर लटकाये दोनों खाली हाथ !
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देखते हुए इस रात को
पूरी रात खोजता रहा वो
जाने किसे बड़ी शिद्दत से
गुजरते हुए निराशाओं
के गलियारों से तब तक
जब तक की रात अपने
दिन से मिलकर तू गले
अभिभूत नहीं हो जाती
और जब छाने लगता है
उजाला और हवाएं धीमी
धीमी हो बंद नहीं हो जाती
तब वो होकर उदास फिर से
खड़ा हो जाता है अपनी राह
पर लटकाये दोनों खाली हाथ !
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