Saturday 23 June 2018

मेरे मन का सूना आंगन गूंजता है !

मेरे मन का सूना आंगन गूंजता है !
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ना जाने किन्यु मेरा मन तरसता है 
सुनने को तुम्हारी आवाज़ ;
तब जंहा कंही भी होता हु मैं बस
बंद कर अपनी पलकों को करता हु
कोशिश सुनने की तुम्हारी आवाज़ में
तुम्हारा पुकारा जाना मेरा नाम "राम"
जैसे जग का सबसे मधुरिम राग
घुल जाता है मेरी रग- रग में
बहने लगती है खुसबू हवाओं में
जैसे कोई कुंवारी कच्ची धुप उतरकर
मेरे मन के शर्द और सुने आंगन में
करती है सम्मोहित मेरे पुरे अस्तित्व को
फिर एक गुनगुनाहट तुम्हारे इश्क़ की
गूंजने लगती है मेरे कानो में बस
उसी वक़्त रुक जाती है धड़कन मेरी
लुप्त हो जाती है चेतना मेरी और
थम जाता है सृष्टि का चक्र और
हो जाती है असयंमित मेरी सांसें 
उस पल तुम सवार हो मुझ पर
कर लेती हो स्थापित अपना स्तम्भ !
फिर ना जाने किन्यु मेरा मन तरसता है 
सुनने को तुम्हारी आवाज़ ;

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !