Monday 18 June 2018

मेरे आंगन की एक लौ

मेरे आंगन की एक लौ
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सुनो  ...
ये जो चाँद है ना
जब आसमान में
नहीं दिखता है
तब भी चमकता है
जैसे मेरी नींद मेरे
पास नहीं होती तो भी
वो होती है तुम्हारी
आँखों में क्योकि वो
जिस डगर पर चलकर
आती है उसके मुहाने पर
बैठी रहती है तुम्हारी वो
दो शैतान कारी-कारी अँखियाँ
जो मेरी नींद को धमका कर रोक लेती है
अपनी ही अँखिओं में और फिर
पूरी रात मैं जगता हुआ तुम्हारे अधरों
की सुवास की कोरी छुवन को अपनी
अँखिओं की किनारी से उतर कर
मेरे आंगन में एक लौ की तरह टिमटिमाते
हुए देखता हु मेरी ज़िन्दगी के स्वरुप में
जंहा तुम अंकित होती हो मेरे जीवन
पृष्ठ पर ज़िन्दगी के रूप में !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !