सिन्दूर उतर रहा हो लहरों में
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चाहता हु अब हर शाम
उतरना तुझमे कुछ इस तरह
जैसे दिन भर का तपता सूरज
शाम को उतरता है समंदर में
तब लहरें कुछ यूँ लगती हैं की
जैसे उतर रहा हो उनका
सारा का सारा नमक और
सूरज भर रहा हो उनमे
तन्मयता से अपना सारा
सिन्दूर ठीक वैसे ही चाहता हु
तुम अपने लबों को जब रख कर
मेरे होंठों पर गुजरो मुझमे से तुम
तो यु लगे जैसे की मेरे
जिस्म से उतर कर मेरा
ही जिस्म चढ़ गया हो तुझ पर
और मेरी रूह के पांव ना ठीके
धरती पर फिर बस
वो उड़ती रहे हवाओं में !
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