बिखर जाता हु मैं
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अक्सर चाँद भी
थक कर छुप जाता है
तुम्हारे इंतज़ार में
लेकिन मैं जोड़ता
रहता हु एक के बाद
एक ख्वाब तुम्हारे
इंतज़ार में और
जोड़ते-जोड़ते ख्वाब
जब थक जाता हु
तो खुद ही बिखर
जाता हु कभी तो
ऐसा भी होता है
तुम्हारी आरज़ू में
खुद को उस तरह
छू बैठता हु जैसे
आत्मीय पलों में
तुम्हे छुआ करता हु
बस इसी उधेड़बुन में
रोज रात आती है
मेरे भी पास लेकिन
रूकती नहीं बस
मेरी मुट्ठी से
फिसल जाती है
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