Sunday 1 April 2018

कब के बिछुड़े हुए हम




कब के बिछुड़े हुए हम
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जो कहती नही थकती थी 
मेरे लिए मुश्किल होगा जीना...
तुम्हारे संवाद के बिना वो कई
दिनों से आयी नहीं है पास मेरे
तबियत थोड़ी सी नासाज़ जो हुई मेरी
मैंने तो प्रतिउत्तर में सिर्फ
इतना ही कहा था तुम्हारे
बिना बक-बक-करने वाला राम
बस थोड़ा उदास थोड़ा गम-सुम सा
रहेगा इंतज़ार में की कब तुम आओ
और मेरे दिन जलते हुए अलावा
की जगह सावन की फुहारों से भीगे
और जो रात सर्द बर्फ सी हुई कपकपा
रही होंगी वो रातें तुम्हारे आने से
रजाई में सिमट तुम्हारी नरम नरम
उष्मा से भर खुल कर सोयेगी और       
मेरे कंठ में सोती हुई स्वर कोकिला 
तुम्हारे प्रेम के गीत गा गा कर ज़माने
को बताएगी की कब के बिछुड़े हुए हम
आज कंहा आ के मिले मैंने जैसा कहा था
वैसे ही हु तुम्हारे इंतज़ार में आज   
   

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !