Saturday 8 June 2019

मैं मुकम्मल हो गई हूँ !


मैं इश्क़ के पानी में हल हो गई हूँ ,
अब तक अधूरी थी मुकम्मल हो गई हूँ ; 

पलट पलट कर आता है जो कल ,
मैं वो आने वाला कल हो गई हूँ ;

बहुत देर से पाया है मैंने खुद को , 
मैं अपने सब्र का फल हो गई हूँ ;

हुआ है मोहब्बत को इश्क़ जब से , 
उदासी तेरा आँचल मैं हो गई हूँ ;

सुलझाने से और उलझती जा रही हूँ , 
मैं अपनी ज़ुल्फ़ का बल हो गई हूँ ;

बरसता है जो बे-मौसम ही अक्सर , 
मैं उस बारिश में जल थल हो गई हूँ ; 

मेरी ख़्वाहिश है की मैं तुम हो जाऊ ,  
मुझे लगता है की मैं पागल हो गई हूँ !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !